खुद से खुद को मिलवाती हूं
अक्सर खुद को गुमराह कर लेती हू ..
वक्त की दायरे से चुरा के कुछ लम्हे ...
खुद से खुद को मिलवाती हू ...।।
दुर से घूरता हुआ उस चांद कॊ नजाने कितने सवालों मे डुबो देती हू ....
मिलेगा कभी भी जवाब, ये सोच के अक्सर में नजरे चुरा लिया करती हूं. ..
भूल दुनिया के भीड़ को -
टिमटिमा ता हुआ तारों से कुछ पल के आशियाना सजा लेती हू ...
और यु रोज शाम में खुद से खुद को मीलवाती हूं ..।।
दिल के भरे पड़े जजवातो को अक्सर कागज के टुकड़ों से रुबरु कराती हू ..
यादों के कुछ अनकही पहलों मे खुद को ही ढूँढने चलती हू ..
बिन बोले कभी कभी दास्तान -ए-दिल मे भी बयां कर लेती हू ...
और इसतरह रोज में खुद से खुद को मिलवाती हू ....।।
कभी सपनों से तो कभी अपनों से बिखरे हुई अरमानो को समेटने निकलती हू ..
कभी टूटती हू ..कभी जुडती हू ..
फिर भी आज खुद को गुज़रे कल से बेहतर बनाने के कोशिस करती हू ...
उम्मीद की इस गुलजार को लेते हुए यू रोज में खुद से खुद को मिलवाती हू. ....,,।।
- सुश्री आरती पट्टनायक
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