काश जिंदेगि किताब होती
पढ़सकता में की आगे क्या होगा?
क्या पाऊंगा में क्या दिल खोएगा?
कब थोड़ी खुशी मिलेगी, कब दिल रोएगा?
काश जिंदेगि सचमुच एक किताब होती
फाड़ सकता में उन लम्हों को
जिन्होंने मुझे रुलाया है
जोड़ता कुछ पन्ने जिनकी
यादों ने मुझे हंसाया है.....
हिसाब तो लगा पता कितना
खोया और कितना पाया है?
काश जिंदेगी सचमुच एक किताब होती
वक्त से आंखें चुराकर पीछे चलाजाता
टूटे सपनों को फिर से अरमानों से सजाता
कुछ पल केलिए में भी मुस्कुराता,
काश जिंदेजि सचमुच किताब होती .....
सारी काम आसानी से करपाता...
- राजेश रथ
आस्का, गंजाम
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