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    शादी या बर्बादी


    बहुत से ख्वाब बुनते हैं सब
    जब आती है बात शादी की ।
    पर न रहता कुछ ख्वाब जैसा जब
    तब लगता है आगाज बर्बादी की ।।
    कभी तो उभरकर 
    निखरता है प्यार चेहरे पर ।
    तो कभी बहने लगते हैं ख्वाब 
    आँखो में आँशु बनकर ।।
    सात फेरों के साथ ही कभी 
    मिल जाती है दोनों के राहें ।
    कभी दरारें कुछ ऐसे पडते हैं की
    एक साथ रहकर भी मिलती नहीं बाहें ।।
    कभी शापिंग माॅल में पिछे चलते 
    पति के वजन उठाते हाथ ।
    तो कभी आफिस पार्टी में 
    हिचकिचाती हुई श्रीमती जी का साथ ।।
    कभी गहने-शाडी को लेकर 
    पत्नी का मुँह फुलाना ।
    तो कभी खाने में नमक मिर्च को लेकर 
    पति का भाषण देना ।।
    कभी घरवालों की भीड़ में भी
    अपनी नजदीकियां ढूँढ लेना ।
    तो कभी समानांतर रेखाएं जैसे 
    बिस्तर के दोनों धार पकड़ लेना ।।
    ऐसी कुछ खट्टी सी मिठी सी
    कहानी है ये शादी ।
    निभाना पडे सम्भालकर
    नहीं तो बैशक बनेगी बर्बादी ।।

    आद्यशा प्रियदर्शिनी दास

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