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    बात सिर्फ इतनी सी है


    सागर की लहरों को कोई अपने घर के कुआँ में समेटना चाहता है; 
    सूरज की रौशनी को कोई अपने घर के बल्ब में समेटना चाहता है। 
    गरजते हुए बादलों को बरषने से रोक कौन सकता है? 
    जो पूरी दुनिया को मुक्त  कराने आयी है, उसे कैद कौन कर सकता है? 
    जो तूफान से ऊपर उड़ना जनता हो, उसका तूफान क्या बिगाड़ सकता है?
    आसमान के तारों को गिनना चाहता है कोई;
    आसमान की ऊंचाई को नापना चाहता है कोई;
    समंदर के किनारे बैठकर रेतों को गिनना चाहता है कोई; 
    बारिष की बूंदों को गिन सकने की दावा करता है कोई।
    पर उसे क्या पता
    के,
    अगर समंदर के  रेत को मुठी में बंद करना चाहो, तो हाथ में कुछ नहीं आता;
    पर अगर उसी समंदर के पानी में हाथ डाल लो, तो पूरी समंदर अपनी हो जाती है। 
    अगर बारिष की बूंदो को गिनना चाहो तो, क्या पता पूरी की पूरी उमर निकल जाए;
    और अगर खुद को उसी बारिष की बूंदो में भिगो लो,
    तो वो बारिष भी तुम्हारी दिल की धड़कनो के सुरों में गाना गाने लगती है।
    अगर तुम अपने आप में खुश हो,
    तो ये समंदर के लहरें भी अपने है, और ये बारिष की बूंदे भी;
    ये दुनिया भी खूबसूरत लगती है, और आसमान के सितारें भी;
    सूरज की रौशनी भी मीठी लगती है, और सामने आया तूफान भी। 
    पर बात सिर्फ ईतनी सी हि है,
    की हम अपने आप में खुश है ही नहीं। 
    पर क्यो ? क्या पता ?
    पता होता तो बता देती।

    - सुचिस्मिता साहू

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