चुप चाप सब बदल जाता है
मैं बढ़ रही थी,
बचपन छूट रहा था
पापा की नन्ही परी अब महलों की माल बन चुकी थी ।
सबकी नजरों में अब फर्क आने लगा था
जिंदगी यूंही काट रही थी चुप चाप सी ।
एक दिन रात की अंधेरों में सब बिखर जाता है
चुप चाप सब हो जाता है
और हो कर के गुजर जाता है ।
रस्तें पर इज्जत लुटता है, और
और रस्ता भी थरथराता है
बदन पर फर्क क्या पड़े
अंदर रूह में आग लगता है ।
सिकायत तभी पापा से होती है
क्यों आपने मुझे आंगन की तुलसी बनाया
कभी एकबार दुर्गा केहलिया होता
खुद को बचाने की हिम्मत आ जाता
आंख से आँशु नहीं गिरता
कुछ लहू सा टपक्ति हैं
चुप चाप सब हो जाता है
और हो कर के गुजर जाता है ।।
- गोपी किशन परिड़ा
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